क्या कहेंगे लोग? दुनिया का सबसे बड़ा रोग, जानें कैसे दूसरों की चिंता से दिमाग में होता केमिकल रिएक्शन
सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग
अपने यहां एक पुरानी कहावत है- ‘सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग।’ अब इस कहावत पर साइंस की मुहर भी लग गई है। साइंटिफिक अमेरिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक जब कुछ भी करते हुए ‘लोग क्या सोचेंगे’ की चिंता हद से ज्यादा बढ़ जाए तो काम के साथ-साथ मेंटल हेल्थ भी बुरी तरह प्रभावित होने लगती है। ऐसे लोगों की जिंदगी में एक ठहराव आ जाता है। उनके करियर की गाड़ी रुक सी जाती है। वे कुछ भी नया करने का साहस नहीं जुटा पाते। उनकी क्रिएटिविटी खत्म हो जाती है।
दूसरों की चिंता से दिमाग में होता केमिकल रिएक्शन
‘Psych Central’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंसानी मन सोसाइटी और कुनबे में रहने के लिए ढला है, जिसमें लोग एक-दूसरे के साथ और प्रोत्साहन की उम्मीद करते हैं। दूसरों की ओर से पॉजिटिव या निगेटिव रिस्पॉन्स मिलने पर दिमाग में ‘बायोफिजिकल रिएक्शन’ होता है। इस रिएक्शन से हमारा मूड तय होता है। जहां पॉजिटिव रिस्पांस खुशी से भर देता है, वहीं निगेटिव रिस्पांस दुख और निराशा से भर सकता है।
एक स्वस्थ और इमोशनली मैच्योर इंसान दूसरों के कमेंट से होने वाले ‘बायोफिजिकल रिएक्शन’ के बीच खुद पर काबू रख पाता है, अपने फैसलों को डिफेंड कर पाता है। जबकि सोशल एंग्जाइटी, आत्मविश्वास की कमी या चाइल्डहुड ट्रॉमा की वजह से कुछ लोगों में दूसरों के कमेंट से होने वाला ‘बायोफिजिकल रिएक्शन’ काबू से बाहर चला जाता है।
ऐसी स्थिति में वे अपनी भावनाओं पर कंट्रोल नहीं रख पाते। एक समय बाद यही रिएक्शन उनके फैसलों को प्रभावित करने लगता है, उनका खुद पर से कंट्रोल खत्म हो जाता है। ‘दूसरे लोग क्या सोचते हैं’ की चिंता में वे अपनी चिंता करना भी भूल जाते हैं।
खुद को अस्वीकार करने का नतीजा है ‘लोगों की चिंता’ का डर
प्राचीन चीनी दार्शनिक लाओत्से की मानें तो सेल्फ नेग्लिजेंस यानी अपने आप को अस्वीकार करने की सोच ‘लोगों की चिंता’ की असल वजह है। जब लोग आत्मविश्वास की कमी या किसी और वजह से खुद को अस्वीकार करने लगते हैं, अपनी इच्छाओं, जरूरतों और भावनाओं को दबाते हैं तो ऐसी स्थिति में उनकी इच्छाओं और जरूरतों पर दूसरों की सोच हावी हो जाती है। वे खुलकर फैसले नहीं ले पाते। उनके मन में लोगों की सोच का डर बैठ जाता है। कुछ भी करते हुए पहला ख्याल ‘लोगों की सोच’ का ही आता है। यह डर उनके व्यक्तित्व को गहराई तक प्रभावित करता है।
अपने आलोचक खुद बनेंगे तो दूसरों की बातें ज्यादा असर नहीं करेंगी
हम कोई भी फैसला यूं ही नेपथ्य में नहीं लेते। कुछ भी करने के फायदे-नुकसान और अंजाम के बारे में एक गणित हमारे मन में हमेशा चलता रहता है। मन में काफी गुणा-गणित लगाने के बाद ही हम किसी फैसले पर पहुंचते हैं। फिर सोचते हैं कि ‘लोग क्या कहेंगे।’ इस स्थिति में पहुंचने के बाद पुराना कैलकुलेशन बिगड़ जाता है। सोची हुई बातों और प्लान पर काम नहीं कर पाते। लोगों की परवाह करते हुए अचानक से कुछ भी फैसला ले लेते हैं, जिसका खामियाजा मेंटल वेलबीइंग और करियर को भुगतना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए खुद को अपना सबसे अच्छा आलोचक यानी क्रिटिक बनाना फायदेमंद हो सकता है। क्योंकि हमें अपने बारे में, अपनी जरूरत, लक्ष्य, सपने और क्षमता के बारे में सबसे ज्यादा पता है। ऐसे में रोजमर्रा की जिंदगी में हमें क्या, कैसे, कब, कहां और कितना करना चाहिए, इसकी भी सबसे मुफीद जानकारी खुद हमारे पास होती है। लेकिन अपनी जानकारी और कैलकुलेशन के आधार पर काम तभी संभव होगा, जब हम खुद को अपना सबसे अच्छा क्रिटिक मानें और अपनी समालोचना पर भरोसा करें। मन में विचारने के बाद जो भी फैसला करें, उस पर कायम रहें और लोगों के कमेंट की परवाह न करें।